Saturday 16 March 2013

आप भी बिहार से हैं..


..अब बिहारी कहलाना गर्व की बात होगी, कोई भी उपेक्षित नही रहेगा..

राज्य के नए मुखिया बनते ही नीतीश कुमार ने वर्ष 2005 में लोगों को यह भरोसा दिलाया कि राज्य से बाहर रह रहे बिहारियों के लिए अपमान जैसी स्थिति का और सामना नहीं करना पड़ेगा। अगर राज्य से बाहर रह कर वो अपमानित महसूस कर रहे हैं तो अपने राज्य वापस आइए, सरकार काम और सम्मान दिलाएगी। ताबड़तोड़ शिलान्यास और योजनाओं के शुभारंभ के साथ कुछ ही महीनों में लोगों तथा मीडिया का आकर्षण बन गए नीतीश। 
 
वर्तमान परिस्थिति में लोगों को काम तो मिला पर सम्मान पाने के लिए वो संघर्ष कर रहे हैं और पदोन्नति के लिए पुलिसिया लाठियों की चोट। गौर करने की बात यह कि राज्य से बाहर रह रहे लोग बहुतेक संख्या में वापस तो नहीं आए लेकिन कुछ हद तक राज्य से कामगारों का पलायन रुक गया, वहीं छात्रों का पलायन जारी है। बाहरी निवेश का तो पता नहीं लेकिन लोग अपने घर में निर्भीक होकर पैसा खर्च करने लगे, पर इससे परदेसी बिहारियों का आकर्षण नहीं बढ़ा। 
    
विकास का नारा देते-देते नीतीश कुमार दोबारा सत्ता में आए और विकास पुरूष कहलाने लगे। इससे पहले अंग्रेजी जानने वाले धुरंधर भी बिहार के ग्रोथ रेट पर वाह-वाह करने लगे, साथ ही कई पुरस्कारों से विकास पुरूष को सम्मानित किया गया। हालांकि राज्य में बदलाव की बयार बही जरूर, लेकिन लोगों की अपेक्षाएं और भी ज्यादा बढ़ी, जिसके लिए नीतीश कुमार की खुद की छवि उल्लेखनीय है। व्यक्तिगत तौर पर वो ईमानदार व दूरदर्शी छवि के सोशल इंजीनीयर साबित होते गए। विपक्ष को ज्यादा मुद्दा हाथ नहीं लगा और वो सरकार के बजाय सत्ता के लोगों पर आरोप लगाने लगा। नीतीश कुमार यहां भी बाजी मार गए व दूसरे कार्यकाल में न सिर्फ सत्ता में आए बल्कि विपक्षी कुनबा ही साफ कर दिया। लालू प्रसाद किसी तरह लोकसभा पहुंच गए पर रामविलास पासवान को हार के बाद लालू प्रसाद की मदद से राज्यसभा में जगह मिली।

अब सत्ता के मंच से उतर कर सड़क से सोचिए, लोगों के लिए विकास के मायने क्या हैं.. बेरोजगारों या यूं कहें कि शादीशुदा लोगों के लिए नीतीश सरकार ने संविदा शिक्षक नियोजन कार्यक्रम लाया (ऐसा इसलिए लिखा क्योंकि ज्यादातर पंचायत शिक्षक 25-35 वर्ष के ही हैं)। वो पंचायत स्तर के सरकारी शिक्षक बन भी गए पर वेतन तो सरकारी नहीं मिला, इसमें ज्यादातर महिलाएं हैं। जब जितना भी मिला वह सरकारी तौर तरीके से पहुंचा। यह सिर्फ शिक्षा विभाग में नहीं सभी नियोजन आधारित (बे)रोजगारों का है।

छात्रों के लिए अच्छे शिक्षक और शिक्षा विकास है, व्यापारियों के लिए सड़क साधन, महिलाओं के लिए स्वास्थ्य-सुरक्षा, युवाओं को रोजगार, किसान को पानी आदि। शायद नीतीश कुमार इसे समझ रहे होंगे क्योंकि दूसरे कार्यकाल में वो उतने खरे नहीं उतरे जितना लोगों ने पहले समझा। कुछ योजनाओं को लागू कर वो राष्ट्रीय उदाहरण तो बन गए पर अब अपनों ने ही उन्हें घेर रखा है। उनको कहना पड़ रहा है कि भगवान भी इन शिक्षकों को नियमित नहीं कर सकता, शिक्षामंत्री तो 12 हजार करोड़ का रोना रो रहे हैं।

माननीयों और अधिकारियों की संपत्ति घोषित कर कुछ भष्टाचारियों की संपत्ति भी जब्त हुई। पर अगर आप समय पर वेतन नहीं देंगे तो लोग अन्य स्रोत से कमाई का जरिया ढूंढेंगे जो भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे सकता है। कुछेक योजनाओं से वाह वाही लूटने के बजाए पुराने पर ध्यान केंद्रित करे तो दूरगामी परिणाम दिखेगा। जब लोग अपनी सीमित आय पर आश्रित हो जाए तो कमाने का कोई और जरिया नहीं रह जाता, परिवार में कलह के साथ-साथ समाज में अस्थिरता पनपने लगता है। बिहार में यह देखने को मिल रहा है।

विकास अगर हो रहा है तो लोगों की अपेक्षाएं भी बढ़ रही है, अगर मंत्रीजी की कमाई बढ़ रही है तो क्या क्षेत्र में अनुकूल बदलाव आया? वरन माननीयों को लग्ज़री गाड़ी और आलीशान आवास के साथ अन्य सुविधाएं बढ़ी। होना तो यह चाहिए था कि बिहार जैसे गरीब राज्य में सरकार माननीयों से निवेदन कर उनको पुरानी गाड़ियों से ही संतोष करा लेते, आई-पैड की जगह सस्ता लैपटॉप दे देते। मीडिया में विज्ञापन की जगह जन जागरण कार्यक्रम चलाते।

अब विशेष राज्य का दर्जा लेने के लिए रैली और अभियान चलाया जा रहा है जो केंद्र की सरकार देने से रही। वो बिहार को सम्मान तो दे न सकी अब विशेष दर्जा के बहाने पैसा कहां से दे, यूपीए सरकार खुद चुनावी योजनाओं के लिए पैसे जुगाड़ रही है। चाहे नीतीश कुमार कांग्रेस में ही क्यों न चले जाएं, मानकर चलिए कि बिहार को केंद्र सरकार यह दर्जा नहीं देगी। 
    
अब बात आगे की। विकास का रोडमैप तो कागजों पर ही है, कृषि में कोई बुनियादी बदलाव नहीं आया, जो मिला वह सीमित है यह जानते हुए कि इसी से बिहार का विकास जुड़ा है। सड़कें तो बनी पर राज्य से ज्यादा केंद्र सरकार की मदद से। एक साथ सौ-सौ पुल-पुलियों का उद्घाटन करने से सड़क जुड़ सकते हैं, लोग नहीं। और शायद इसका लाभ सिर्फ गाड़ियों के रफ्तार तक रह गया है, कोई उद्यमी दूर-दराज के क्षेत्रों में निवेश नहीं करना चाहता- बिजली, सुरक्षा और बाजार की कमी है। रोजगार के अवसर समाचारपत्रों पर ही खिलते नजर आते हैं। जन कल्याण योजनाएं मीडिया की सुर्खियां है, आम आदमी आज भी आस ही लगाए है। अगर दूसरे कार्यकाल तक कारगर काम नहीं होगा तो विकास के मॉडल से विश्वास उठ जाएगा। फिर आप जंगलराज के विकल्प में याद किए जाएंगे न कि विकास के।

आकड़ों में नीतीश सरकार गुजरात की मोदी सरकार से भी ज्यादा विकास कर रही है। एक मोदी तो अपके पास भी हैं, वो भी वित्त और गृह संसाधनों के साथ। शायद भविष्य में कुछ समानता देखने को मिले। आकड़ों के आकर्षण से मीडिया और लोगों को भरोसा दिया जा सकता है, सरकार नहीं चलाया जाता। वैसे मीडिया आप दोनों को बहुत चाहता है। प्रेस परिषद के अध्यक्ष की बात पर गौर मत कीजिएगा, क्योंकि बिहार में सेंसरशिप होता तो क्षेत्रिय मीडिया सरकार से खुश नहीं होता, बखान और बड़ाई करने से उसे फुर्सत ही नहीं है।

मध्य से उत्तर भारत के बड़े शहरों में हर तीसरा कामगार बिहारी मिलता है, फुटपाथ पर चाय बनाने वाले से लेकर एसी ऑफिस में बैठकर वही चाय पीने वाला पेशेवर व्यक्ति। बड़ी-बड़ी अट्टालिका बनाने से लेकर उसमें बसने वाले भी कुछ बिहार से जुड़े होते हैं। दक्षिण में हैदराबाद, चेन्नई, बैंगलुरु, पुणे, महाराष्ट्र और पश्चिम में राजस्थान तक, बिहार के होनहार युवा उच्च शिक्षा से लेकर पेशेवर काम में लगा है। भाषा और बोली से जब पता चलता है तो हम पूछ ही लेते हैं.. आप भी बिहार से हैं?

हमें अपनी जन्मभूमि से लगाव याद तो आता है पर घर वापसी से अब भी मन घबराता है। रिश्तेदार और अभिभावक तो भावुक होकर पूछते हैं.. घर कब आओगे? और मन कहता है कि तुम हो घर लगता है वरना डर लगता है।

Thursday 17 January 2013

संस्कृतियों का भी अद्भुत संगम है महाकुंभ


इस बार के कुंभ मेले को महासंयोग के रूप में भी देखा जा रहा है। संगम के तट पर आस्था के इस सैलाब को तरह-तरह के नजरिए से देखा जाता है। घूमने-फिरने के शौकीन विदेशी मेहमानों की दिलचस्पी दखते ही बनता है।

आस्था के इस संगम मे सिर्फ हिन्दू और साधु ही नही, यहां अलग-अलग संस्‍कृति, परंपरा, परिवेश और भाषाओं के लोग आते हैं। देश के लगभर हर कोने से आए श्रद्धालुओं का जोश देखते ही बनता है। अगर आप उनके बीच खड़े है तो उनकी बोली भी वही भाव प्रकट करती है जिसे आप सुनने की चाहत रखते हैं- संगम में डुबकी लगाने और गंगाजल ले जाने की चाह।

एक सर्वे के अन्‍तर्गत  मीडिया के छात्र इसकी फोटोग्राफी, वीडियोग्राफी तो करेंगे साथ ही इससे जुड़े दस्‍तावेज भी तैयार किये जायेंगे। महाकुंभ में इस वर्ष दुनिया भर से लगभग 10 करोड़ से ज्यादा लोगों के आने का अनुमान लगाया जा रहा है। पहले दिन यानी मकर संक्रांति, 14 जनवरी को ही एक करोड़ से ज्यादा लोग संगम के तट पर आए। वैसे स्थानीय प्रशासन के इंतजाम तो पक्के हैं पर लोगों को संगम के तट पर जाने के लिए घुमावदार रास्ते और पानी के बदइंतजामी को नकारा नहीं जा सकता। वैसे भूले-भटके केंद्र की व्यवस्था को काफी सराहा जा रहा है। आईजी खुद खास दिनों पर कनून-व्यवस्था पर कैंप किए रहते है। पुलिस का भी मानना है कि व्यवस्था बनाए रखना एक चुनौती है। इलाहाबाद और कुंभ मेले के कमिश्‍नर आईएएस अधिकारी देवेश चतुर्वेदी का कहना है कि इस आयोजन की देखरेख करना, आम चुनाव की तरह ही चुनौतीपूर्ण हैं। यह प्रशासन के लिए बेहद मुश्किल काम है। इसे कैसे मैनेज किया जाता है। इसका अध्‍ययन करने के लिए देश के बड़े-बड़े संस्‍थानों से मैनेजमेंट गुरू भी आये हुए हैं।

मेले के विविध रंगों में आए साधु और बाबा आकर्षण का केंद्र है, कहीं चटपटिया बाबा हैं, कहीं एक डंडे से सब दु:ख दूर करने वाले महागौरी जी महाराज तो कहीं 40 वर्षों से जाग रहे फलाहारी बाबा। कुम्भ नगरी यूं तो 29 सेक्टरों में फैली हुई है, लेकिन इस धार्मिक मेले में दूर-दूर से आने वाले बाबाओं की ख्याति भी अब चारों ओर फैल रही है। इन बाबाओं की महिमा और साधना से यहां का माहौल आस्था और भजन के तरंगों से सराबोर है। खास श्रृंगार से सजे साधु और साध्वी भी खासे आकर्षित कर रहे हैं और यह बात यहां देखी भी जा सकती है। अगर महाकुंभ में नागा साधुओं की चर्चा न की जाए तो यह संगम ही अधूरा माना जाएगा। कहा जाता  है कि महाकुंभ में आने वाले नागा साधु महिलाओं से भी कहीं अधिक शृंगार करते हैं। महाकुम्भ के पहले शाही स्नान के दौरान नागा साधुओं के ये शृंगार वाकई में महिलाओं को भी मात देते नजर आए। पहले शाही स्नान के दौरान विभिन्न अखाड़ों के नागा साधुओं के विभिन्न रूप देखने को मिले। 17 से 18 तरह के श्रृंगार में सजे साधुओं को अगर आपने नहीं देखा तो यह यात्रा अधूरी है।

यहां आए भक्त और आस्था में सराबोर लोग नित्य क्रिया करने के बाद खुद को शुद्ध करने के लिए गंगा स्नान करते हैं, वहीं नागा सन्यासी शुद्धीकरण के बाद ही शाही स्नान के लिए निकलते हैं। महाकुम्भ पहुंचे नागा सन्यासियों की एक खासियत यह भी है कि इनका मन बच्चों के समान निर्मल होता है। ये अपने अखाड़ों में हमेशा धमा-चौकड़ी मचाते रहते हैं। इनका मठ इनकी अठखेलियों से गूंजता रहता है। अखाड़ों की बात करें तो महानिर्वाणी, जूना और निरंजनी अखाड़ों में सबसे अधिक नागा साधुओं की तादाद है। यकीन मानिए लोगों में चर्चा और कौतुहल बनाए इन नागा साधुओं को जब आप देखेंगे तो उनके जोश और उत्साह के आगे आप और कुछ सोच भी नहीं पाएंगे, देखने की बात तो दूर है। नागा तो बस नाम है, काम और उस जीवन को जीना अत्यंत कठिन है और यही उनके साधना व समर्पण का सार है।


सच कहूं तो संगम पर आए इस सैलाब को देखना और व्यक्त करना मुमकिन नहीं क्योंकि अगर आप इसे जीवंत देखना चाहते हैं तो न टीवी, न कहानी और ना ही रिपोर्ट देखिए क्योंकि दुनिया में इतना बड़ा जन सैलाब कहीं और नहीं मिलता। कुम्भ को देखने से ज्यादा महसूस करने की कोशिश कीजिएगा
!

Sunday 25 March 2012

दर्द दे गया, जैमी का जाना


मुझे नहीं पता कि भारत की शर्मनाक पराजय के लिए किसे दोषी माना जाए, पर जिस रतह से सीनियर खिलाड़ियों को निशाना बनाया गया वह न्यायोचित नहीं था।


जिस तरह गृहस्थी में पहले बचपन, युवा और व्यस्क के बाद वृद्धावस्था आता है कुछ उसी प्रकार क्रिकेटरों को भी अपने पेशेवर जीवन में कई रंग से रूबरू होना पड़ता है। मगर इसका पैमाना अलग है, 35 के राजनीति और 35 के क्रिकेटर होने में फर्क है। इस उम्र के पार भी लोग राजनीति के युवराज कहलाते हैं पर क्रिकेट में अलविदा युग या बूढ़े शेर कहलाने को मजबूर हो जाते हैं। दोनों के प्रदर्शन का प्रभाव समान जरूर है।

बातजैमीके जाने की यानी राहुल के रिटायरमेंट की हो रही है। द वॉलसुनने में जितना कठोर लगता है वास्तव में द्रविड़ उससे ज्यादा लचीले हैं। शायद ही कोई ऐसा खिलाड़ी हुआ हो जो क्रिकेट के सभी प्रारूप को शालीनता से खेलने में सक्षम रहा है। एक बेदाग क्रिकेट करियर से लेकर किसी फैसले को मानने वाले राहुल की कहानी सबसे जुदा है। टीम के कप्तान तथा प्रबंधन ने जब-जब उन्हें जहां कहीं भी बल्लेबाजी या किसी भी भूमिका के लिए कहा, उन्होंने ना नहीं कहा। इसी कारण उन्हें टीम मैनभी कहा जाता था। इसके अलावा द्रविड़ उन चंद खिलाड़ियों में भी थे जो किसी भी तरह का क्रिकेट खेल सकते हैं लेकिन प्राथमिकता टेस्ट क्रिकेट को ही दिया।

बतौर बल्लेबाज के रूप में उन्होंने एकदिवसीय क्रिकेट में करियर का पदार्पन किया, पर वो निकले टेस्ट क्रिकेट के कठोर बल्लेबाज। टीम जब कभी संकट में रही ज्यादातर मौके पर द्रविड़ ने नैया पार लगाया। उनके क्रीज पर रहते हुए खिलाड़ी निश्चिंत हो जाते थे कि अब तो फिलहाल विकेट नहीं गिरने वाला। इसी पर सुनील गावस्कर ने कहा, ‘मैदान के बाहर और अंदर अपने काम की गंभीरता के कारण वे युवा खिलाड़ियों के लिए आदर्श थे। ड्रेसिंग रूम में सचिन तेंदुलकर ने युवा खिलाड़ियों को प्रेरित किया, लेकिन ये खिलाड़ी जानते थे कि सचिन कुछ खास हैं, लेकिन वे राहुल द्रविड़ की ओर ऐसे देखते थे जैसे वे सभी द्रविड़ बन सकते हैं। राहुल हमेशा मेहनत करने वाले खिलाड़ी थे। उनके संन्यास से बड़ा शून्य पैदा हो गया है।

टीम इंडिया को ऑस्ट्रेलिया में मिली करारी हार की जिम्मेदारी चाहे जिस किसी की हो, पर ऐसा क्यों लगता है कि कीमत राहुल द्रविड़ ने चुकाई। व्यक्तिगत तौर पर किसी खिलाड़ी को दोष देना बेईमानी हो सकता है पर मैदान के अंदर और खेल के बाहर भी राहुल ऐसे शख्स है जिनकी सहनशीलता को सलाम करते हैं। सौरभ गांगुली, सचिन तेंदुलकर, सहवाग और युवराज सरीखे रिकॉर्डधारी बल्लेबाजों के बीच निरंतर प्रदर्शन करते रहना और पहचान बनाना ही बड़ी बात है। जब कभी उनके बल्ले से रन खामोश हुआ अपनी कलात्मक शैली और क्लासिकल शॉट्स के जरिए राहुल ने वापसी की। और वह भी रिकॉर्डतोड़ वापसी। आंकड़े गवाह हैं कि वो कितने सफल और शालीन खिलाड़ी रहे। किसी भी खिलाड़ी का घरेलू रिकॉर्ड सबसे बेहतर होता है, पर द्रविड़ शायद पहले भारतीय क्रिकेटर हैं जिनका विदेशों में प्रदर्शन घरेलू मैदान से बेहतर रहा है।


किसी भी खिलाड़ी से की जाने वाली तुलना में राहुल सचिन से भी कम नहीं रहे। खुद सचिन जैसा रिकॉर्डधारी भी इस बात से सहमत होगा। आंकड़े कहते हैं कि अपने 16 वर्षों के करियर में उन्होंने सचिन तेंदुलकर से ज्यादा रन बनाए। द्रविड़ ने 164 टेस्ट में 36 शतक और 63 अर्धशतक की मदद से 52.31 की औसत से 13288 रन बनाए जिसमें पकिस्तान के खिलाफ खेली उनकी 270 रन की सर्वश्रेष्ठ पारी भी शामिल है। वह तेंदुलकर के बाद टेस्ट क्रिकेट में सर्वाधिक रन बनाने वालों की सूची में दूसरे स्थान पर हैं। सौरव गांगुली की कप्तानी में खेले गए 21 टेस्ट जीतों में उन्होंने भारत के लिए 23 प्रतिशत रन बनाए और इन मैचों में उनका औसत 102.84 रहा। गांगुली के कप्तानी में जब भारत 2003 विश्व कप के फाइनल में पहुंचा तब उस दौरे पर उन्हें विकेट कीपर बनाया गया। सब गंगुली पर हैरान थे पर दलील भी समझ में आ गई, भारत को एक बल्लेबाज के साथ साथ एक नया कीपर मिल गया था। इससे पहले राहुल द्रविड़ ने 1999 विश्वकप में सर्वाधिक रन भी बनाया। वह 210 कैचों के साथ टेस्ट क्रिकेट के सबसे सफल क्षेत्ररक्षक हैं, जिसमें अधिकतर कैच स्लिप में लपके। इसके अलावा वनडे क्रिकेट में भी 196 कैच के साथ 14 स्टंप किए।

अब जैमीकी यह भोली सूरत मैदान पर भले नहीं दिखेगी पर क्रिकेट इतिहास के जेमजरूर बन गए हैं। मीडिया सहित अन्य हस्तियों ने इस पर अपने विचार प्रकट किए। अमिताभ बच्चन ने राहुल के संन्यास लेने पर उनकी भूमिका की सराहना की। अमिताभ ने लिखा, सबसे ज्यादा भरोसेमंद, जेंटिलमैन, निस्वार्थ भाव से खेलने वाले क्रिकेटर ने संन्यास लिया। वहीं शाहरुख खान ने कहा, राहुल द्रविड़ मेरे लिए सबसे जीवंत और भरोसेमंद क्रिकेटर हैं। टेनिस खिलाड़ी महेश भूपति ने लिखा, मैदान के अंदर और बाहर के चैम्पियन खिलाड़ी हैं राहुल। सचिन ने कहा, मैं उसे मिस करूंगा।
गांगुली की अपनी दलील है, राहुल के रिटायरमेंट पर कहते हैं कि कि द्रविड़ एक बेहतरीन बल्लेबाज ही नहीं, अच्छे विकेट कीपर और कप्तान भी थे। उनका फैसला सही वक्त पर आया। उनके संन्यास से खाली हुई जगह को भरना आसान नहीं होगा। द्रविड़ तीसरे नंबर पर खेलने वाले दुनिया के सबसे भरोसेमंद बल्लेबाज थे।

पर शायद राहुल टीम प्रबंधन और क्रिकेट बोर्ड का भरोसा नहीं जीत पाए और खुद में खुश रहना बेहतर समझा। पिछले इंग्लैंड दौरे पर जब उन्हें अचानक चार साल बाद वनडे टीम में शामिल किया गया तो उस दौरे के पहले ही वनडे को अलविदा कह गए। अब जब वो कुछ टेस्ट पारियों में बोल्ड होने लगे तो सवालों के घेरे में आ गए। और वो शायद इसका जवाब भी अपने अंदाज में दे पाते, पर ऐसा लग रहा है कि सबकुछ समय से पहले हो गया। द्रविड़ ने अपनी एक कुर्सी खाली कर बहुतों के लिए अवसर खोल दिया पर क्या टीम इंडिया में दूसरा द वॉलखड़ा होगा? या क्रिकेट बोर्ड के पास उनके लायक कोई भूमिका है
(published in www.zeenews.com/hindi )

Monday 6 February 2012

अगर टूटने से ‘सहारा’ मिले तो तोड़ दो करार



सहारा और टीम इंडिया। ये दोनों नाम भारत में खेल और लोगों की भावना से भामनात्मक और वास्तविकरूप से जुड़ा हुआ है। शायद इसी लिए सहारा ग्रुप के प्रमुख सुब्रत रॉय ने सार्वजनिक रूप से कहा कि भारतीय क्रिकेट टीम से इतने लंबे समय तक जुड़े रहने का कारण भावनात्मक लगाव था। खासकर भारत में क्रिकेट को बढ़ावा देना। लेकिन यहां का बोर्ड अब अमीरपतिबन गया है।

कुछ मायनों में वो सही कह रहे थे क्योंकि जिस समय सहारा ग्रुप भारतीय टीम से जुड़ी उस समय न तो बीसीसीआई विश्व की सबसे अधिकउगाहीवाली संस्था थी और ना ही क्रिकेट में इतना पैसा। इसी क्रम में खेलों की दुनिया में एक जाने पहचाने नाम- सहारा इंडिया ने भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड, बीसीसीआई को करारा झटका देते हुए उसके साथ जारी लाखों डॉलर कीमत की स्पांसरशिप और इंडियन प्रीमियर लीग की पुणे फ्रेंचाइजी टीम से पिछले दिनों खुद को अलग करने का फैसला किया। सहारा की दलील है कि इतने लम्बे समय से क्रिकेट के साथ जुड़े रहने के बावजूद उसे एक बार फिर बीसीसीआई से उचित न्याय नहीं मिला है। सहारा का यह फैसला आईपीएल-5 की नीलामी के शुरू होने से कुछ समय पहले ही आया। इस नीलामी में 144 खिलाड़ियों की बोली लगनी थी लेकिन पुणे वारियर्स ने इस नीलामी में हिस्सा नहीं लिया।


वहीं बीसीसीआई ने कहा है कि उचित न्याय के बारे में सहारा की शिकायत दुर्भाग्यपूर्ण है और जहां तक पुणे फ्रेंचाइजी छोड़ने की बात है तो वह शर्तो के तहत ही इसमें कोई कदम उठा सकता है। कहने को तो ये शर्त है पर जोड़-तोड़ का खेल भी खुद बीसीसीआई ही करती है, क्योंकि इस अमीर क्रिकेट बोर्ड का किसी के प्रति जवाबदेही नहीं है और सरकार के प्रयास के बावजूद खुद को नियम कानून से दूर रखती है। यानी अपना नियम अपने हाथ!


सहारा को लोगो वाला भारतीय क्रिकेट टीम का नया जर्सी 2011 में आया था
सहारा का यह कहना कि एक प्रायोजक के रूप में 11 वर्षो की यात्रा के बाद वो निश्चित रूप से कह सकते हैं कि क्रिकेट अब बहुत धनवान हो चुका है, क्रिकेट की सहायता के लिए बहुत से धनी लोग मौजूद हैं। ऐसे में सहारा ग्रुप बहुत ही शांति के साथ बीसीसीआई की अधीनता वाले क्रिकेट से अलग हो सकता हैं और वो भारी मन के साथ इससे अलग हो रहे हैं। यह कथन ही बहुत कुछ बयां कर जाता है।



सहारा ग्रुप ने मई 2010 में भारतीय टीम के साथ अपने करार का नवीकरण किया था। इसके तहत उसे प्रत्येक मैच के लिए बीसीसीआई को 7,19,000 डॉलर देने होते हैं। यह करार दिसम्बर 2013 को समाप्त हो रहा था। इसके अलावा सहारा ने पुणे वारियर्स का मालिकाना हक हासिल करने के लिए बीसीसीआई को 37 करोड़ डॉलर दिए। सहारा ने बीसीसीआई से अनुरोध किया था कि वह युवराज सिंह की कीमत को चार फरवरी की नीलामी के लिए उपलब्ध राशि में जोड़ दे, जिससे कि वह बीमारी के कारण गैरहाजिर रहने वाले युवराज के स्थान पर किसी अन्य महत्वपूर्ण खिलाड़ी को अपने साथ जोड़ सके लेकिन बीसीसीआई ने उसकी इस मांग को ठुकरा दिया। सहारा ने यहां तक कहा था कि वह बीमारी से जूझ रहे युवराज को पूरी फीस देगा क्योंकि वह उसके लिए परिवार के सदस्य की तरह हैं। वहीं बीसीसीआई ने कहा कि वह खिलाड़ी के तौर पर युवराज का सम्मान करती है लेकिन जहां तक आईपीएल नियमों की बात है तो बीसीसीआई इसे साफ करने के लिए सहारा से बात करेगी।



वहीं आईपीएल अध्यक्ष राजीव शुक्ला ने कहा कि नीलामी के दिन सहारा का बोर्ड के साथ सम्बंध तोड़ने का फैसला बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। मगर ऐसा नहीं है कि बीसीसीआई कुछ भी महसूस नहीं कर रहा। वही भी सकते में है और भारतीय क्रिकेट को स्पांसरशिप न देने अथवा आईपीएल मुकाबलों में हिस्सा न लेने के सहारा के एकतरफा फैसले से किसी नकारात्मक आशंकाओं को दूर करने के लिए प्रयासरत है।

अब समय करार जारी रखने या मनाने का नहीं है क्योंकि कुछ मामलों में यह करार टूटना हितकर है। एक तो बीसीसीआई जैसी संस्था को अब टीम इंडिया की जर्सी पर लोगो लगाने के लिए किसी तरह के सहाराकी जरूरत नहीं। कई नामी कंपनियां कतार में खड़ी मिलेंगी और दूसरी तरफ सहारा ग्रुप के मुखिया ने कहा कि अब यह पैसा ग्रमीण प्रतिभा को उभारने में लगाएंगे। अन्य सामाजिक कार्यों में सहभागिता बढ़ाएंगे।

यानी क्रिकेट बोर्ड को और अमीर प्रायोजक मिलेगा, साथ हीसहाराके साथ अन्य खेलों को भी बढ़ावा मिल सकेगा। कुल मिलाकर क्रिकेट का नुकसान होकर औरों का भला हो सकेगा। बस इस करार के टूटने का इंतजार कीजिए। फिर किसी और को इस सहारा से भला हो तो क्यों न टूटे यह करार!