..अब बिहारी कहलाना गर्व की बात होगी, कोई भी उपेक्षित नही रहेगा..
राज्य के नए मुखिया बनते ही नीतीश कुमार ने वर्ष 2005 में लोगों को यह
भरोसा दिलाया कि राज्य से बाहर रह रहे बिहारियों के लिए अपमान जैसी स्थिति का और
सामना नहीं करना पड़ेगा। अगर राज्य से बाहर रह कर वो अपमानित महसूस कर रहे हैं तो
अपने राज्य वापस आइए, सरकार काम और सम्मान दिलाएगी। ताबड़तोड़ शिलान्यास और
योजनाओं के शुभारंभ के साथ कुछ ही महीनों में लोगों तथा मीडिया का आकर्षण बन गए
नीतीश।
वर्तमान परिस्थिति में लोगों को काम तो मिला पर सम्मान पाने के लिए वो
संघर्ष कर रहे हैं और पदोन्नति के लिए पुलिसिया लाठियों की चोट। गौर करने की बात
यह कि राज्य से बाहर रह रहे लोग बहुतेक संख्या में वापस तो नहीं आए लेकिन कुछ हद
तक राज्य से कामगारों का पलायन रुक गया, वहीं छात्रों का पलायन जारी है। बाहरी
निवेश का तो पता नहीं लेकिन लोग अपने घर में निर्भीक होकर पैसा खर्च करने लगे, पर
इससे परदेसी बिहारियों का आकर्षण नहीं बढ़ा।
विकास का नारा देते-देते नीतीश कुमार दोबारा सत्ता में आए और विकास
पुरूष कहलाने लगे। इससे पहले अंग्रेजी जानने वाले धुरंधर भी बिहार के ग्रोथ रेट पर
वाह-वाह करने लगे, साथ ही कई पुरस्कारों से ‘विकास
पुरूष’ को सम्मानित किया गया। हालांकि राज्य में बदलाव
की बयार बही जरूर, लेकिन लोगों की अपेक्षाएं और भी ज्यादा बढ़ी, जिसके लिए नीतीश
कुमार की खुद की छवि उल्लेखनीय है। व्यक्तिगत तौर पर वो ईमानदार व दूरदर्शी छवि के सोशल इंजीनीयर साबित होते गए। विपक्ष को ज्यादा मुद्दा हाथ नहीं लगा और वो सरकार
के बजाय सत्ता के लोगों पर आरोप लगाने लगा। नीतीश कुमार यहां भी बाजी मार गए व
दूसरे कार्यकाल में न सिर्फ सत्ता में आए बल्कि विपक्षी कुनबा ही साफ कर दिया।
लालू प्रसाद किसी तरह लोकसभा पहुंच गए पर रामविलास पासवान को हार के बाद लालू
प्रसाद की मदद से राज्यसभा में जगह मिली।
अब सत्ता के मंच से उतर कर सड़क से सोचिए, लोगों के लिए विकास के
मायने क्या हैं.. बेरोजगारों या यूं कहें कि शादीशुदा लोगों के लिए नीतीश सरकार ने
संविदा शिक्षक नियोजन कार्यक्रम लाया (ऐसा इसलिए लिखा क्योंकि ज्यादातर पंचायत
शिक्षक 25-35 वर्ष के ही हैं)। वो पंचायत स्तर के सरकारी शिक्षक बन भी गए पर वेतन
तो सरकारी नहीं मिला, इसमें ज्यादातर महिलाएं हैं। जब जितना भी मिला वह सरकारी तौर
तरीके से पहुंचा। यह सिर्फ शिक्षा विभाग में नहीं सभी नियोजन आधारित (बे)रोजगारों का
है।
छात्रों के लिए अच्छे शिक्षक और शिक्षा विकास है, व्यापारियों के लिए
सड़क साधन, महिलाओं के लिए स्वास्थ्य-सुरक्षा, युवाओं को रोजगार, किसान को पानी
आदि। शायद नीतीश कुमार इसे समझ रहे होंगे क्योंकि दूसरे कार्यकाल में वो उतने खरे
नहीं उतरे जितना लोगों ने पहले समझा। कुछ योजनाओं को लागू कर वो राष्ट्रीय उदाहरण
तो बन गए पर अब अपनों ने ही उन्हें घेर रखा है। उनको कहना पड़ रहा है कि भगवान भी
इन शिक्षकों को नियमित नहीं कर सकता, शिक्षामंत्री तो 12 हजार करोड़ का रोना रो
रहे हैं।
माननीयों और अधिकारियों की संपत्ति घोषित कर कुछ भष्टाचारियों की
संपत्ति भी जब्त हुई। पर अगर आप समय पर वेतन नहीं देंगे तो लोग अन्य स्रोत से कमाई
का जरिया ढूंढेंगे जो भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे सकता है। कुछेक योजनाओं से वाह वाही
लूटने के बजाए पुराने पर ध्यान केंद्रित करे तो दूरगामी परिणाम दिखेगा। जब लोग
अपनी सीमित आय पर आश्रित हो जाए तो कमाने का कोई और जरिया नहीं रह जाता, परिवार
में कलह के साथ-साथ समाज में अस्थिरता पनपने लगता है। बिहार में यह देखने को मिल
रहा है।
विकास अगर हो रहा है तो लोगों की अपेक्षाएं भी बढ़ रही है, अगर मंत्रीजी
की कमाई बढ़ रही है तो क्या क्षेत्र में अनुकूल बदलाव आया? वरन माननीयों को लग्ज़री गाड़ी और आलीशान आवास
के साथ अन्य सुविधाएं बढ़ी। होना तो यह चाहिए था कि बिहार जैसे गरीब राज्य में
सरकार माननीयों से निवेदन कर उनको पुरानी गाड़ियों से ही संतोष करा लेते, आई-पैड
की जगह सस्ता लैपटॉप दे देते। मीडिया में विज्ञापन की जगह जन जागरण कार्यक्रम
चलाते।
अब विशेष राज्य का दर्जा लेने के लिए रैली और अभियान चलाया जा रहा है
जो केंद्र की सरकार देने से रही। वो बिहार को सम्मान तो दे न सकी अब विशेष दर्जा
के बहाने पैसा कहां से दे, यूपीए सरकार खुद चुनावी योजनाओं के लिए पैसे जुगाड़ रही
है। चाहे नीतीश कुमार कांग्रेस में ही क्यों न चले जाएं, मानकर चलिए कि बिहार को
केंद्र सरकार यह दर्जा नहीं देगी।
अब बात आगे की। विकास का रोडमैप तो कागजों पर ही है, कृषि में कोई
बुनियादी बदलाव नहीं आया, जो मिला वह सीमित है यह जानते हुए कि इसी से बिहार का
विकास जुड़ा है। सड़कें तो बनी पर राज्य से ज्यादा केंद्र सरकार की मदद से। एक साथ
सौ-सौ पुल-पुलियों का उद्घाटन करने से सड़क जुड़ सकते हैं, लोग नहीं। और शायद इसका
लाभ सिर्फ गाड़ियों के रफ्तार तक रह गया है, कोई उद्यमी दूर-दराज के क्षेत्रों में निवेश नहीं करना चाहता- बिजली, सुरक्षा और
बाजार की कमी है। रोजगार के अवसर समाचारपत्रों पर ही खिलते नजर आते हैं। जन कल्याण
योजनाएं मीडिया की सुर्खियां है, आम आदमी आज भी आस ही लगाए है। अगर दूसरे कार्यकाल
तक कारगर काम नहीं होगा तो विकास के मॉडल से विश्वास उठ जाएगा। फिर आप जंगलराज के
विकल्प में याद किए जाएंगे न कि विकास के।
आकड़ों में नीतीश सरकार गुजरात की मोदी सरकार से भी ज्यादा विकास कर रही है। एक मोदी तो अपके पास भी हैं, वो भी वित्त और गृह संसाधनों के साथ। शायद भविष्य में कुछ समानता देखने को मिले। आकड़ों के आकर्षण से मीडिया और लोगों को भरोसा दिया जा सकता है, सरकार नहीं चलाया जाता। वैसे मीडिया आप दोनों को बहुत चाहता है। प्रेस परिषद के अध्यक्ष की बात पर गौर मत कीजिएगा, क्योंकि बिहार में सेंसरशिप होता तो क्षेत्रिय मीडिया सरकार से खुश नहीं होता, बखान और बड़ाई करने से उसे फुर्सत ही नहीं है।
मध्य से उत्तर भारत के बड़े शहरों में हर तीसरा कामगार बिहारी मिलता
है, फुटपाथ पर चाय बनाने वाले से लेकर एसी ऑफिस में बैठकर वही चाय पीने वाला
पेशेवर व्यक्ति। बड़ी-बड़ी अट्टालिका बनाने से लेकर उसमें बसने वाले भी कुछ बिहार
से जुड़े होते हैं। दक्षिण में हैदराबाद, चेन्नई, बैंगलुरु, पुणे, महाराष्ट्र और पश्चिम
में राजस्थान तक, बिहार के होनहार युवा उच्च शिक्षा से लेकर पेशेवर काम में लगा
है। भाषा और बोली से जब पता चलता है तो हम पूछ ही लेते हैं.. आप भी बिहार से हैं?
हमें अपनी जन्मभूमि से लगाव याद तो आता है पर घर वापसी से अब भी मन
घबराता है। रिश्तेदार और अभिभावक तो भावुक होकर पूछते हैं.. घर कब आओगे? और मन कहता है कि तुम हो घर लगता है वरना डर
लगता है।